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नमस्ते कहिए या आदाब कहिए

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नमस्ते कहिए या आदाब कहिए ज़रा दूर से पर ज़नाब कहिए ये फ़ासला, नहीं दूरी दिलों की समय का लगा कुछ हिसाब कहिए सतविन्द्र कुमार राणा

ठहरा हुआ समय

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ठहरा हुआ समय "क्या जमाना आ गया है!" स्वभाविक शिकायती अंदाज में बस की सीट पर बगल में बैठे वृद्ध बारू राम बड़बड़ाया। "क्या हो गया बाबा? जमाने से क्या शिकायत हो गई अब?", नवीन ने चुटकी ली। "बेटा! मैं आजकल के समय की बात कर रहा हूँ।" "जी, समझ गया सब।" नवीन ने रूखा-सा जवाब दिया। और चुप बैठ4 गया। यह बात बारू राम को न पची और वह बोल उठा, " हम चिट्ठी-पत्री से भी पहले के ज़माने देख चुके हैं।" "तो?" "कई-कई दिन में सन्देश मिलते थे।" "आज तो सेकंड्स में सन्देश यहाँ से अमरीका पहुँच जाता है।" "जानता हूँ। हम पैदल, बलगाड़ी या साइकिल पर ज़्यादातर सफ़र किया करते।" "अब तो घर-घर बाइक है, कार भी है ही, और आदमी की औक़ात हो तो क्या समुद्र, क्या जमीन और क्या हवा, अंतरिक्ष में भी घूम कर आ सके है।" "पता है बेटा, यह भी। पहले आदमी बहुत मेहनत किया करते।" "अब तो मशीनों और कंप्यूटर ने सारे काम आसान कर दिए। बहुतेरे काम तो कई की जगह एक ही आदमी कर लेता है। बहुत समय बच जाता है।" नवी