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Showing posts from August, 2018

स्वप्न सजाना बाकी है

मुक्तक कोरी कोरी-सी नींदों में, स्वप्न सजाना बाकी है कुछ बूँदें पानी की टपकी, खून मिलाना बाकी है खुश हो ले ऐ! अँधियारे हैं कुछ पल तेरे पास अभी तारों का झुरमुट है अभी, चाँद का आना बाकी है। ©सतविन्द्र कुमार राणा मुक्तक धूप-छाँव को सबने देखा, आते-जाते बारी-बारी नमक लिया हो या फिर मीठा, इनको खाते बारी-बारी स्वाद एक-सा किसे सुहाए, समय एक-सा किसको भाए? रात बीतती दिन चढ़ता है, दोनों आते बारी-बारी ©सतविन्द्र कुमार राणा
कुण्डलिया भाई साच्चा तब कवाँ, रक्षाबन्धन पर्व भाई के वें कर्म हों, भाणा नै हो गर्व भाणा नै हो गर्व, नजर हर इक हो आच्छी दुनिया की हर नार, सुरक्षित हो ज्या साच्ची 'सतविन्दर' कह ठीक, मान की रवै कमाई नारी का सम्मान, करै वो साच्चा भाई। .... ठाले बैठे ही जिसे, मिलता जाए माल काम-धाम को छोड़ कर, काटे दिन औ साल काटे दिन औ साल, नहीं करने की सोचे खाली बैठा पेट, युँही भरने की सोचे हो जाता बीमार, देह फिर गड़ गड़ हाले बनकर रहे हराम, रहे जो बैठा ठाले ... अपने दुख से कम् दुखी,सुख से सबके तंग ऐसे हर इंसान से,मोह सभी का भंग मोह सभी का भंग,नहीं जन उसको चाहें उसकी छवि से दूर,अलग सबकी हों राहें छीनूँ सबका चैन,यही जो देखे सपने आने क्यों दे पास,उसे फिर कोई अपने ...  सबका दिल है काँपता, ऐसी घटना होय चलते रास्ते पर भई, सबकुछ अपना खोय सबकुछ अपना खोय, मान भी लूटा जाता मानवता पर मार, समझ में कब कुछ आता सतविन्दर कविराय, कहाँ का है यह तबका घटना ऐसी देख, काँपता है दिल सबका .... आजादी वह भाव है,जिससे सबको प्यार इसको पाने के लिए,हुई बहुत तकरार हुई बहुत तकरार,कई ने जान गँवाई ह
कुण्डलिया मानों सच्ची बात को, यह है शाश्वत ज्ञान खुद ही कष्टों से लड़ो, ठीक लगाकर ध्यान ठीक लगाकर ध्यान, पार उन पर जो पाना हो सकता उपहास, शुरू जो किया बताना 'सतविंदर' कम लोग, साथ दे पाते जानों ईश्वर भी तब संग, साहसी खुद को मानों ©सतविन्द्र कुमार राणा
कुण्डलिया वैचारिक मतभेद को, रखकर मन से दूर अच्छे सबके कर्म को, अच्छा कह भरपूर अच्छा कह भरपूर, हौसला उनको मिलता उनको करता देख, दूसरों का दिल खिलता 'सतविंदर' पुरजोर, बढ़ें फिर आगे हर इक जन-सेवा मत त्याग, भेद रख कर वैचारिक। ©सतविन्द्र कुमार राणा
शब्द बाण भूला सारे तीर जो, चुभते बारम्बार उनसे करता कौन है, नहीं जानता वार! नहीं जानता वार, हुआ क्या भेजा खाली लेकर शब्द उधार, कहे बस ठोको ताली सतविंदर क्यों दुष्ट, मित्र ये बने तुम्हारे याद रहा सहभोज, कपट तू भूला सारे।। ©सतविन्द्र कुमार राणा
गीत बदरा छाए दिखते नभ में  धरती पर पानी-पानी हो संघर्ष भले ही कितना जीने की हमने ठानी। धरती को घेरे हुए, दिखता चहुँदिश नीर जीव जगत को दे रहा, यह बहुतेरी पीर यह बहुतेरी पीर, गाँव तक ये भर आया जंगल हो या राह, इसी में दिखे समाया 'सतविंदर' पर चाह, राह का सिरजन करती जो करता संघर्ष, भोगता है वह धरती। उसके आगे देखो पड़ती मुश्किल को मुँह की खानी। साथी हो जब साथ में, हर मुश्किल आसान हरे पीर वह धूप की, सुख का छाता तान सुख का छाता तान, बचाता है बारिश से  सच्चा मरहम प्रीत, सुरक्षा दे खारिश से 'सतविंदर' है साच, दीप का जीवन बाती सहज सहें सब कष्ट, साथ जब सच्चा साथी। निर्मल मन की नेह धार का होता है क्या जग में सानी? ©सतविन्द्र कुमार राणा
फैसला (लघुकथा) "भाइयो! गलती दोनों ने करी थी!बहिष्कार भी दोनों का ही हुआ था।छोरा जब गाँव में आया था, तो उसके परिवार वालों ने ही उसको धमका कर खदेड़ दिया था और अपने किये के पछतावे में उसने जहर निगल लिया था। उसको बचाया किसी ने नहीं, पर उसकी मौत का तमाशा हम सबने देखा,क्यूकर तड़फ कर मरा था वो? सब जानते हैं।" पंचायत में एक मौजिज व्यक्ति ने बात कहनी शुरु की। सब ध्यान से सुन रहे थे। उसने आगे कहा, "भाइयो! लड़की की शादी उसके घर वालों ने बाहर ही करदी, गाँव को कुछ पता नहीं। गाँव वालों को इससे कोई मतलब भी नहीं। पर अब सुनने में आया है कि वो अपने घर आने-जाने लगी है।" "हाँ..हाँ उसको देखा है, रात में ही आती है, कभी घर से निकलती नहीं और फिर किसी रात में ही चली जाती है।कर्मसिंह की घरवाली उनके घर ही थी उस शाम मुँह अँधेरे, जब वो घर आई थी।" एक आदमी ने तुरंत जोड़ा। सब पंचायती लड़की के पिता की ओर देखने लगे। जो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और नज़र झुकाकर बोला, "जी,यह बात सच है, कभी-कभी आ जाती है हमारी बेटी।" "अरे!उस टैम तू भी था न फैसले के पक्ष में?  इनका छोरा तो जहान ते
शब्द बाण जीवन कितने खप गए, कुछ देखे लाचार  कुछ चुप रह सहते रहे, पीड़न अत्याचार पीड़न अत्याचार,  गुलामी घातक भाई सच्चे रहे प्रयास, तभी आजादी आई 'सतविंदर' कह दंश, झेलते हैं लाखों तन आजादी का अर्थ, न जाने उनका जीवन। ©सतविन्द्र कुमार राणा

शब्द बाण

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वादों का यह दौर है, पोषित करता वाद लोकतंत्र मजबूर पर, जाति-पन्थ आबाद जाति-पंथ आबाद, देश दुनिया सब पीछे करता बन्दर बाँट, भूप आँखों को मीचे 'सतविंदर' न प्रभाव, रहा मीठे नादों का क्रूर किस्म का जोर, और झूठे वादों का। ©सतविन्द्र कुमार राणा

झाँक आना

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मुक्तक मुश्किलों पर इस तरह कुछ पार पाना चाहिए हौसले से हर कदम आगे बढ़ाना चाहिए  है बहुत आसान उँगली दूसरों पर तानना इक दफ़ा खुद के भी भीतर झाँक आना चाहिए। ©सतविन्द्र कुमार राणा

कभी न हारे

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कह मुक़री गम को हर लेता वह सारे बातें करता कभी न हारे जीवन महकाए बने इत्र क्या सखि साजन? ना सखी मित्र। ©सतविन्द्र कुमार राणा

कच्चा धागा

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कच्चा धागा प्रेम का, सोहे हमें अपार बन्धन यह रक्षार्थ है, बहन-भ्रात का प्यार बहन-भ्रात का प्यार, गूढ़ करता ये जाए बँधे सहित संकल्प, सुरक्षा भाव जगाए सतविन्दर कविराय, पर्व पर खुश हर बच्चा बाँधे उसके हाथ, बहन जब धागा कच्चा ©सतविन्द्र कुमार राणा

डायरी का अंतिम पृष्ठ (लघुकथा)

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डायरी का अंतिम पृष्ठ एक अरसे बाद, आज मेरे आवरण ने किसी के हाथों की छुअन महसूस की, जो मेरे लिए अजनबी थे। कुछ सख्त और उम्रदराज़ हाथ। मेरे पृष्ठों को उनके द्वारा पलटा जा रहा था। दो आँखें गौर से हर शब्द के बोल सुन रही थीं। मेरे अंतिम लिखित पृष्ठ पर आते ही ये ठिठक गईं। पृष्ठ पर लिखे शब्दों में से आकाश का चेहरा उभर आया। सहमा-सा चेहरा। उसने भारी आवाज़ में बोलना शुरू किया, "एक रिटायर्ड फ़ौजी, मेरे पापा। चेहरे पर हमेशा रौब, मगर दिल के नरम। आज उनकी बहुत याद आ रही है। जानता हूँ, स्वभाव से कड़क हैं वे। पर फिर भी कितनी ही बार मुझे लड़खड़ाते को संभाला। मेरी ही इच्छा पर उन्होंने मुझे घर से इतनी दूर कोचिंग लेने के लिए भेजा। इस भारी खर्चे को भी झेला। मेरी हिम्मत वे ही हैं। कभी न टूटने वाली चट्टान-से...." चेहरे से डर का साया हटता महसूस हुआ। स्वर में हौंसला लौटने लगा,"यह जो हुआ मैं इसे सोच कर यूँ ही परेशान हूँ। मैं... अभी फ़ोन कर उन्हें बता देता हूँ कि पापा अबकी बार पी एम टी का परिणाम मेरे लिए सही नहीं आया। हाँ.. हाँ पापा से बात करके ही अब चैन मिलेगा।" उम्रदराज आँखें फ़टी की फटी रह गई