Posts

Showing posts from June, 2020

कलमगोई किस्से बहुत माँगती है- ग़ज़ल

Image
ये तकलीफ रिश्ते बहुत माँगती है कलम गोई किस्से बहुत माँगती है भले टेढ़ी बातों में फँसती है जनता  ये उत्तर तो सादे बहुत माँगती है टिकी फितरतें झूठ पर जिसकी सारी वो वादे पे वादे बहुत माँगती है बड़ी बातें साहब बनाते रहे हो सियासत है जुमले बहुत माँगती है करो दफ्न ग़ैरत मरी जो तुम्हारी *खुली कब्र मुर्दे बहुत माँगती है।* जरा रुक के देखो सुनो कुछ हमें भी मुहब्बत है लम्हे बहुत माँगती है। ©सतविंद्र कुमार राणा

राजनीति का भूत-संस्मरण

Image
बात उस समय की है जब पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे। कक्षा में पढ़ने में सबसे होशियार हम दो लड़के थे। दोनों  ही लगभग एक समान ही अंक प्राप्त करते थे, हर टेस्ट में। उस समय विद्यालय में महिला अध्यापक को बहनजी कहते थे। हमारी बहनजी थी रौशनी बहनजी। उन्होंने मुझे कक्षा का मॉनिटर नियुक्त किया हुआ था। दूसरा जो लड़का था उसके साथ एक अन्य लड़के की जरा ज्यादा नजदीकियाँ बन गई थी। उसका और इसका क्रमांक साथ-साथ थे और वह पढ़ने में थोड़ा कमजोर था, शायद इस लिए। होशियार विद्यार्थियों के फैन जरा ज्यादा ही होते हैं। एक दिन हमारी बहनजी नहीं आई तो मैंने अगली गणित प्रश्नावली के सूत्र और सवाल कक्षा को बोर्ड पर समझा दिए। उसके बाद बहनजी भी मुझे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। पहले तो मॉनिटर का पद और फिर ये सम्मान मिलने पर मेरी और उन दोनों के बीच बिना दिखने वाली दूरी-सी बन गई। मुझे लगने लगा कि वो मुझसे जलते हैं। मैंने इस बात की घोषणा भी कक्षा में ही कर दी। मुझे कहीं से पता चला की कहीं विद्यार्थियों में वोट पड़े और उनमें से दो विद्यार्थियों में एक को बहुत सारे वोट मिले और वह जीत गया। शायद किसी कॉलेज के इलेक्शन का जिक्र था।

कायदा मतलब का (लघुकथा)

Image
"देख रे, भले ही कितनी पढ़ी-लिखी हो, प्राइबेट स्कूल में नौकरी करन तो बहू भेजी न जावै म्हारे पै। हाँ, सरकारी नौकरी लाग जेगी फेर कोई दिक्कत नहीं।" "क्यूँ माँ?" "गाम-गवांड के प्राइबेट स्कूलां मैं बहू मास्टरनी बनेगी तो लोग के कह्वेंगे? कि थोड़े-से पैस्या खातर हमनै बहू तै नौकरी करवानी शुरू कर दी। ना भाई मैं इसा न होने दूँगी।" माँ ने जैसे ही आज उसकी पत्नी की नौकरी को लेकर बात छेड़ी, उसे अपनी शादी के कुछ माह बाद माँ द्वारा दी गयी हिदायत याद हो आयी। तब संकोचवश वह भी कुछ न कह पाया था और उसकी नई-नई ब्याहता पत्नी भी, जबकि वह खुद भी एक निजी विद्यालय में शिक्षक है। "के सोचण लाग ग्या बेटा, मेरी बात का जवाब नहीं दिया?" "माँ, इसी बारे में सोच रहा था। उस टैम तो तू घणी करड़ी होगी। म्हारी एक न सुनी तने।" "बेटा, लोकलाज अर कैदे का ख्याल रखना पड़ै है। उस टैम जो बात सही थी मनै वही कही थी।" माँ ने समझाने का प्रयास किया। "अब उसके उलट बात क्यूकर सही हो गई माँ, आज भी गाम-गवांड तो वही है अर लोग भी वें ही?" "अरे, फालतू बकर-बकर ना करे।" , माँ

जीवन के रंग- नवगीत

Image
इंद्रधनुष को दिखे चिढ़ाते, जीवन के सब रंग नींव मिली है अच्छी जिसको उस पर खड़ी अटारी कच्ची-सी मिट्टी पर लेकिन लगे झोपड़ी भारी महलों की आहट से ढहती हर कुटिया बेरंग। दाने-दाने पर कर कब्जा गोश्त नोच कर खाए इसकी भूख बड़ी है इतनी भूखे को निपटाए पचे हाजमे की गोली से  दूजा भूखा अंग जर्जर है काया लेकिन यह बालक-सा मन रखती नरम हाड़ होता जब साथी नहीं खेलती थकती  बालपन हो, या हो बुढ़ापा दोनों चाहें संग। ©सतविन्द्र कुमार राणा

रोशनी का वार: नवगीत

Image
धूल, धूम्र और अँधेरे,  कब तलक रवि को ढकेंगे? टूटना  उनके छलों का, जान लो हर बार होगा। मेघ भूले राह जब- जब सूखता कृषक का सपना खेत को लेकिन खड़ा वह सींचता निज श्वेद अपना कर्म के ही हाथ उसके, भाग्य का फिर तार होगा। ढोंग करे कोई ढोंगी कुछ समय तक जीतता है सत्य किरण पर है आती यह समय जब बीतता है है तमस की हार निश्चित, रोशनी का वार होगा। कंटकों से भरा है  ये मार्ग जो अब दिख रहा है लेकिन इसका राही ही इक इबारत लिख रहा है   समझ के संग हौसले से  मार्ग ऐसा पार होगा। ©सतविन्द्र कुमार राणा

फाइदा खुद का भी देखकर हो गए- ग़ज़ल

Image
फ़ायदा खुद का भी देख कर हो गए, कुछ इधर हो गए, कुछ उधर हो गए। चश्म तो हैं खुले पर दिखे कुछ नहीं, रास्ते धुंध से तर-ब-तर हो गए। आग से बुझ रही, आग जब पेट की, घी को ले कर खड़े आग पर हो गए। बाग अब लग रहा घोर जंगल कोई, लोभ से फूल सब जानवर हो गए। तोड़ने के सबक सीखते हैं जहाँ वो मकातिब सभी को नज़र हो गए। ©सतविन्द्र कुमार राणा

चलती जीवन गाड़ी

Image
एक समझ को रखे सँजोए, दूजा रहे अनाड़ी। दो पहिये हम, प्रेम धुरी है,  चलती जीवन गाड़ी। ठंड घेरती जाती इसको, सूनी-सूनी अमराई। आस मिलन की ऐसे लगती, जैसे धूप छिटक आई। पाकर प्रेम तपिश थोड़ी भी, चले जमी हर नाड़ी। पत्थर के रस्ते से बोलो, अब क्या मतलब अपना है। पगडन्डी काच्ची काफ़ी है, आगे जिस पर बढ़ना है। गाँव हमारा रहा ठिकाना, धंधा खेती-बाड़ी। जब दिल में आए हम दोनों, साथ घूमने जाएंगे। दो पहियों की सही सवारी, इसको  हम अपनाएंगे। मैं पहनूँ जैकट सर्दी में, तुम  जर्सी औ साड़ी। ©सतविन्द्र कुमार राणा

राजमार्ग का एक हिस्सा (लघुकथा)

Image
भारी गाड़ियों के आवागमन से कम्पित होता, तो कभी हल्की गाड़ियों के गुजरने से सरर्सराहट महसूस करता हूँ।  घोर कुहरे में  इंसानों की दृष्टि जवाब दे जाती है, मगर मैं दूर से ही दुर्घटना की संभावना  को भांपकर सिहर उठता हूँ। देखता हूँ नई उम्र को मोटरसाइकिलों पर करतब करते निकलते हुए। बेपरवाही जिसके शौंक में शामिल है। हाल ही की  तो बात है, ऐसा करते हुए उस किशोर की बाइक गिर कर कचरा हो गई थी। पीछे से आते ट्रक ने दल दिया था उसे। मेरा काला शख्त सीना पसीज गया था,  इस पर रक्त उभर आया था।  चालकों की गलतियों,उनके आपसी झगड़ों का साक्षी रहा हूँ। अपशब्दों की पराकाष्ठा का भान है मुझे। कभी-कभी तीखे सायरन की अगुवाई में सरपट दौड़ते काफिले  जिन गाड़ियों का मुहँ चिढ़ाते हुए निकल जाते हैं,उनकी बेबसी से परिचित हूँ। आज एक मोटर साइकिल सवार के सामने अचानक केले के छिलके आ गिरे। टायर के नीचे आते ही जिसका नियंत्रण डगमगा गया। वह दूर कच्चे में गिरा। चोट तो ख़ास आई नहीं पर वह सहमा हुआ-सा उठा। उसने काफी आगे निकल चुकी गाड़ी को गालियाँ दी। केले के छिलकों पर एक नजर डाली। मोटर सायकिल सम्भाली और चलता बना। छिलके वहीं मेरे सीने पर लेटे इंस

बच्चों के लिए मनोरंजक स्कूल है, पुस्तक 'समरीन का स्कूल'

Image
बच्चों के लिए मनोरंजक स्कूल है पुस्तक 'समरीन का स्कूल' पुस्तक: समरीन का स्कूल (बाल कहानी संग्रह) लेखक: राधेश्याम भारतीय पृष्ठ: 84 मूल्य: ₹100 प्रकाशन: बोधि प्रकाशन, जयपुर। बच्चों को एक नए स्कूल में, उसकी नई कक्षाओं में, नए सहपाठियों सरीखे पात्रों से मिलवाने का कार्य राधेश्याम भारतीय रचित बाल कहानी संग्रह 'समरीन का स्कूल' करता प्रतीत होता है। इस संग्रह की सभी कहानियों के कथानक स्कूल या उसके इर्द-गिर्द ही जान पड़ते हैं। इस स्कूल में कहानियों के रूप में कुल बारह कक्षाएं हैं। सपने देखना मानव का प्राकृतिक स्वभाव है। बालमन के सपने सुहाने होते हैं। शायद बड़ों के जैसी अतिमहत्वाकांक्षाएँ बालकों में नहीं होती, तथापि उनमें भी कुछ पा लेने की, कुछ बन जाने की ललक या तो स्वाभाविक होती है, अथवा इसका निर्माण उनके मनस पटल पर किया जाता है। लेखक ने अपनी प्रथम कहानी 'गोलू का सपना' के द्वारा न केवल अच्छे सपने देखने की, अपना लक्ष्य निर्धारित करने की प्रेरणा दी है, अपितु उनकी प्राप्ति के लिए दृढ़ निश्चय के साथ परिश्रम करने के लिए भी प्रेरित किया है। लेखक ने सहजता से पत्थर का मानवीकरण करते

दोहावली

Image
१. रीति-नीति निरपेक्ष यह, हर बंधन से दूर। प्रेम-पाश पर बंध से, हर बंधन मजबूर।। २. शक्ति बने है जो कभी, करे कष्ट से पार। कभी दुखी हमको करे, इच्छा वह सरकार।। ३. नीति-नियम का हे सखे!, सदा राखियो ध्यान। भीड़ पड़े पर है खरा, स्वयं विवेक सुजान।। ४. बढ़ना आगे तब सही, जब लें सही विचार। आँख मूँद यदि चल दिये, गिरें गर्त में यार।। ५. ठोकर खाकर भी मिले,  ज्ञान सही मत भूल। ठोकर हालत को करे, जीवन के अनुकूल।। ६. मानुस कर्मों से रखे, स्वच्छ नीर औ वात। जीवन के अनुकूल हो, तभी अवनि सुन बात।। ७. दरखत काटे सो रहा, घर में नर ले चैन। नीड़ लिए अंडा रखा, लगा द्वार पर नैन।। ८.  जिसका फल है कष्ट ही, वह है अतिविश्वास। हिय को संयत राखिए, रहे जागती आस।। ९.  हार मिले है तय यही, जाने सब संसार। एक कण्ठ शोभा बने, दूजा जाए हार।। १०. व्यर्थ न हो बिन कार्य के, समय, खाद्य औ बोल। हम सब यह भी जान लें, पानी है अनमोल।। ११. अन्तस् में रख रौशनी, दिखता जो बेनूर। श्रम कर पोषण कर रहा, वह हर जन मजदूर।। १२. नभ छूते जाएँ भवन,  धुर पाताल खदान। श्रमजीवी के कर्म में, दिखे निराली शान।। १३. भावों के अतिरेक में, गलत बोलना झूठ। झूठ उजागर हो तभी,

शब्द बाण३

Image
1 शिक्षा का अब हो रहा, देखो भई प्रसार संस्थाओं की वृद्धि कर, यह कहती सरकार यह कहती सरकार, फीस जो  भारी देगा उसका बालक ज्ञान, कमाई कर पाएगा तकनीकी का कोर्स, डॉक्टरी भी कब भिक्षा जिसके धन है पास, मिलेगी उसको शिक्षा। 2 हरियाणवी तीर पीसे कट्ठे करण का, यू सै कोरा ढंग ना धुम्मा ये देखते, ना ही उसका रंग ना ही उसका रंग, चुभै आँख्या मैं जन की न प्रदूषण जाँच, करैं बस अपणे मन की सतविंदर सरकार, जाणती यैं लें जी से पड़ी हवा जा भाड़, चाहिए इन नै पीसे। सै: है जी से: आनन्द कट्ठे: इकट्ठे पीसे: पैसे धुम्मा: धुआँ ©सतविन्द्र कुमार राणा 3 पावन गंगा से बड़ा, है किनका परिवेश हरता सारे पाप जो, मिटा हृदय का क्लेश मिटा हृदय का क्लेश, बड़े पद पर बैठाता करता भय से मुक्त, दंड का दम्भ मिटाता सतविंदर हर दाग, मिटे पा इससे धावन मिले जिसे सानिध्य, पतित वह होता पावन। 4 भटका भाई दर बदर, भरने मटका पूर्ण मटके में अटका रहा, उड़ने वाला चूर्ण उड़ने वाला चूर्ण, कहाँ पर टिक पाता है मिले पवन का वेग, फुर्र वह हो जाता है सतविंदर फिर खेल, खिलाड़ी देता झटका भौचक होकर शांत, रहे जो दर-दर भटका। 5

शब्द बाण-२

Image
1 कहता हो जा तू खड़ा, कभी कहे यह लेट फैलाता है हाथ भी, क्या-क्या करता पेट क्या-क्या करता पेट, बड़ा बचपन बन जाता नाना विधि के खेल, दिखा कर हमें लुभाता सतविंदर कह कष्ट, क्षुधा का वह ना   सहता जो कर लेता कर्म, पेट जो उसका कहता। 2 बिन कष्टों के कब मिले, सुख सारे लो जान जब हो श्रम की साधना, तब मिलता है ज्ञान तब मिलता है ज्ञान, सहजता से रम जाता सबक सही यह ध्यान, हमें जीवन भर आता सतविंदर हो रंक, पूत हों या भूपों के जीवन किस का नाम, न जानें बिन कष्टों के। 3 होता हो हावी भले, छल चलता कुछ देर सच से हो जब सामना, हो जाता है ढेर हो जाता है ढेर, पैर फिर से फैलाता बार-बार यह हार, मगर सच से है जाता सतविंदर जो बीज, झूठ के जाए बोता खोकर सब विश्वास, दूर सबसे वह होता। 4 बातें अब होने लगीं, देखो कोरी गप्प गप्पेबाजी से न हो, बुद्धि किसी की ठप्प बुद्धि किसी की ठप्प, नहीं बातों में आना पहले करो विचार, तभी आगे को जाना सतविंदर ये लोभ, बिगाड़ेंगे दिन-रातें पिछला करो हिसाब, गुनों फिर अबकी बातें। 5 रंगत कहते हैं  चढ़े, जैसा राखो संग दो रंगों के मेल से, बने तीसरा रंग बने तीसरा रंग, न

शब्द बाण

Image
1 दुनिया सच पर है टिकी, सच सकल जगत का मूल सच पथ लेकिन जो बढ़े, पग-पग मिलते शूल पग-पग मिलते शूल, करें घायल पैरों को करें स्वजन को दूर , निकट करते गैरों को 'सतविंदर' पर झूठ, बुरा है उससे तो बच काँटों में हैं पुष्प, जानती यह दुनिया सच। 2 सुर से सै संगीत सब, सुर सामूहिक गान सुर मिलकै जब बोलते, छिड़े कसूती तान छिड़े कसूती तान, बोल होते मतलब के सधै जहाँ तै स्वार्थ, जगह उस चालैं सब के 'सतविंदर' यदि लाभ, दौड़ चलै विरोधी-पुर पल मैं दिख ज्यां यार, बदलते-से सबनै सुर। 3 अपनी खाली कोठड़ी, खोल रहे भंडार मुक्त सभी को बाँट दें, खुद दाता के द्वार खुद दाता के द्वार, करें विनती पोषण की कर दो कुछ तो दान, दबें बातें शोषण की सतविंदर जब चाल, चलें मिलती तब ताली जिससे ताला खोल, धरें हम कुर्सी खाली। 4 हर घर में है डॉकटर, घर-घर में उपचार  मिल जाते काउंसलर, अब हर दूजे द्वार अब हर दूजे द्वार, मगर डर का भी घेरा कोई समझे बात, अक्ल पर कहीं अँधेरा सतविंदर लाचार, जिंदगी जब जिंदा डर समझ करे स्वीकार, सुरक्षित तब ही हर घर। 5 देखें जब-जब  मनुज को, जातें भय से काँप चोरी होता