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Showing posts from July, 2020

खुद को पा लेने की घड़ी होगी

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खुद को पा लेने की घड़ी होगी, वो मयस्सर मुझे कभी होगी। हाथ से हाथ को छू लेने से दिल की सिलवट भी खुल गयी होगी। याद लिपटी है उसकी चादर-सी, देह लाज़िम मेरी तपी होगी। उसके बिन मैं सँभल चुका हूँ अब, मस्त उसकी भी कट रही होगी। बोल ज्यादा मगर सभी मीठे, आज भी वैसे बोलती होगी? तब शरारत ढकी थी चुप्पी में, आज भी उसको ढाँपती होगी। दिल में कोई चुभन हुई मेरे, चश्म उसकों में कुछ नमी होगी। 'बाल' आती है याद तुझको, क्या तेरी उसको भी आ रही होगी। ©सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'

थर-थर थर-थर दुश्मन काँपे

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भारत भू की रक्षा खातिर, सदा रहें मन से तैयार दुश्मन की छाती पर कर दें, पड़े न खाली इनका वार हाथों में बंदूकें हों या, साथ न चाहे हो हथियार थर-थर थर-थर दुश्मन काँपे, भरते हैं ये जब हुंकार। बार-बार दुश्मन ने घेरा, लेकिन चला न उसका जोर सिंह हमारे टूट पड़े जब , गया भागता वह उस ओर  मुँह की खानी पड़ी उसे तब, शांत हुआ सब उसका शोर आँख उठाकर फिर यदि देखा, उसे बनादेंगे हम मोर। केवल सीमा की ही चिंता, नहीं रहा है अपना काम घर के अंदर यदि घाती हो, उसको भी देते अंजाम विपदा यदि जनमानस को हो, सेवा करते सुबहो शाम बाढ़ घिरे या धरती काँपे, सैनिक ही देता आराम। हर आफत में आगे बढ़कर, सेवा करती दिल में ठान सेना पर विश्वास करें हम, तभी बढ़ेगा उसका मान सैनिक रक्षक हैं सेवक हैं, उनसे रहे देश की शान उनका आदर सभी करें बस, करें नहीं चाहे गुणगान। सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'

जिंदगी के टुकड़े मिलते रास्तों पर- ग़ज़ल

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यह मुसीबत जो उठाए चल रहा है क्या सहज है, या किसी की योजना है? आसमानी कुछ नहीं आदम जनित यह फैलती ही जा रही ऐसी बला है। जिंदगी के टुकड़े मिलते रास्तों पर कह रही मुझ से खरी देखो कज़ा है। हाल कोई हो समय कैसा रहा हो सेंकने वाला तो रोटी सेंकता है। जान पर इंसानियत की बन पड़ी जब हल कोई मिल के सभी को खोजना है। ©सतविन्द्र कुमार राणा

जिंदगी है जिंदगी से प्यार है रोटी- ग़ज़ल

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वक्त पर हर शख्स की दरकार है रोटी जिंदगी है जिंदगी से प्यार है रोटी। जुस्तजू में इसकी बीतें रात दिन सबके  हर किसी का देख कारोबार है रोटी। जन्म लेता ख़्वाब वादों से किसी का ये खुद रियाया और खुद सरकार है रोटी। सब्र का यह बाँध बन जाती कभी देखो तोड़ने वाली उसे, तकरार है रोटी। अपनों से इंसान को यह दूर करती है जोड़कर रखती जो फिर भी तार है रोटी। गूँथ जाता प्यार से गीला हो जब आटा पेड़े पे हाथों की हल्की मार है रोटी। शर्म में डूबे रहें पकवान थाली में साथ इनके जब तलक ना यार है रोटी। ©सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'

भूख, रोटियाँ और सीख- संस्मरण

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परिस्थितियाँ समयानुसार बदल जाया करती हैं। यह उक्ति प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन के संदर्भ में फिट बैठती है। अन्यथा सामुदायिक या सामाजिक परिदृश्य में तो कुछ परिस्थितियाँ ज्यों कि त्यों बनीं रहती हैं। यदि बचपन की बात की जाए तो यह कई रूपों में नज़र आ जाता है। ऐसा लम्बे समय से हम देखते आए हैं। ढाबों पर, दुकानों पर,  सड़कों पर काम करता बचपन; पेन, गुब्बारे, खिलौने बेचता बचपन; रेल गाड़ियों में, बसों में, धर्मस्थलों पर भीख माँगता बचपन;  अभिभावकों की महत्वकांक्षाओं के लिए भारी भरकम बस्तों से लदा बचपन।  इनमें से कुछ हालात ज़रूरी हैं, कुछ मजबूरी और कुछ दोनों। ख़ैर, आजकल अधिकतर जागरुक अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा पर ज़ोर रखते हैं।  कुछ अधिक जागरुक उन्हें खेल या अन्य अकादमियों में भी भर्ती करवा देते हैं। लेकिन सामान्यतः निम्न मध्यमवर्गीय या मध्यमवर्गीय परिवारों में बच्चे अपने पुश्तैनी धन्धें की भी सीख लेते ही चलते हैं। यही हमारे मामले में रहा। किसानपुत्र होने के नाते हमारा बचपन भी किसानी और पशुपालन कार्यों से अछूता नहीं रहा। होश संभालने पर  विद्यालय से आने के बाद और छुट्टी के दिनों में ये कार्य प्राथमिक ह

तमस चीर उत्थान हो

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तमस चीर उत्थान हो ऐसी एक उड़ान हो सीमाओं को तोड़ खोल दें आज भुजाएँ आशाओं के दीप हृदय में खूब जलाएँ दिनकर सम विश्वास तमस पर होता भारी रखकर उसको साथ रहे लड़ना भी जारी बढ़ना ही  जब ध्येय है निश्चय में भी जान हो। बदली-सा सब दुःख कभी रहता था छाया छँट जाता वह देख समय अच्छा जब आया पा कष्टों पर पार उन्हें दिल से बिसराओ फिर सुख की हो भोर कर्म यूँ करते जाओ। कड़वे-मीठे गीत पर सही सुरीली तान हो। विहग विश्व पर आज उड़े बस पर फैलाकर माप चले आकाश भूमि से ऊपर जाकर जग के बंधन भूल बनें साहस की मूरत सही पकड़ लें राह बदल दें जग की सूरत ऐसा मन में  ठान लें ऊँची अपनी  शान हो। ©सतविन्द्र कुमार राणा

वामनावतार

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नाम हुआ प्रह्लाद भगत का, मन में जिनके बसे विधाता उनके ही पुत्र विरोचन की, सन्तान हुई थी इक दाता महाबली महाराज वह था, रहता जो  घमंड भरा था दैत्य राज वह बन बैठा था, गुण शुक्राचार्य से धरा था तीनों लोकों को जीते यह, जिसने जब मन में ठानी थी सब देवों को धूल चटाकर, दैत्यों की इज्जत लानी थी बल पौरुष का धनी हुआ वह, बली सही ही कहलाता था जीत मही को आगे बढ़ता, देवलोक भी हिल जाता था। तीन लोक को जीत लिया तब, बली बना  सम्राट जगत का दैत्यों का तो अधिपति था वह, पौत्र हुआ प्रह्लाद भगत का लहू लिए खूंखार नशों में, अंश भक्ति का भी रखता था दया हृदय में उसके भी थी, दे वचन निभा वह सकता था दैत्यों का अत्याचार बढ़ा, सब ओर मची अफरातफरी मनुष देव सब दुखी हो गए, आदत दैत्यों की यह अखरी ईश्वर से तब करी प्रार्थना, हे भगवन! हमें बचा लो तुम नर्क हुआ संसार हमारा, प्रभु! इससे हमें निकालो तुम त्रेता युग का काल चला था, जब  श्री हरि ने आकार लिया पहली बार तभी भगवन ने, मानव तन में अवतार लिया बौने ब्राह्मण हुए  भगवन, वामन का वे अवतार बनें लकड़ी छत्री लिए हाथ में, अतिथि बली के दरबार बनें। आचार्य शुक्र यह भाँप गये, वह छलिया