कायदा मतलब का (लघुकथा)



"देख रे, भले ही कितनी पढ़ी-लिखी हो, प्राइबेट स्कूल में नौकरी करन तो बहू भेजी न जावै म्हारे पै। हाँ, सरकारी नौकरी लाग जेगी फेर कोई दिक्कत नहीं।"

"क्यूँ माँ?"
"गाम-गवांड के प्राइबेट स्कूलां मैं बहू मास्टरनी बनेगी तो लोग के कह्वेंगे? कि थोड़े-से पैस्या खातर हमनै बहू तै नौकरी करवानी शुरू कर दी। ना भाई मैं इसा न होने दूँगी।"

माँ ने जैसे ही आज उसकी पत्नी की नौकरी को लेकर बात छेड़ी, उसे अपनी शादी के कुछ माह बाद माँ द्वारा दी गयी हिदायत याद हो आयी। तब संकोचवश वह भी कुछ न कह पाया था और उसकी नई-नई ब्याहता पत्नी भी, जबकि वह खुद भी एक निजी विद्यालय में शिक्षक है।

"के सोचण लाग ग्या बेटा, मेरी बात का जवाब नहीं दिया?"

"माँ, इसी बारे में सोच रहा था। उस टैम तो तू घणी करड़ी होगी। म्हारी एक न सुनी तने।"

"बेटा, लोकलाज अर कैदे का ख्याल रखना पड़ै है। उस टैम जो बात सही थी मनै वही कही थी।"
माँ ने समझाने का प्रयास किया।

"अब उसके उलट बात क्यूकर सही हो गई माँ, आज भी गाम-गवांड तो वही है अर लोग भी वें ही?"

"अरे, फालतू बकर-बकर ना करे।" , माँ ने आज फिर धौंस जमा दी।

" उसने दो-दो एम ए अर बी एड कर रखी, तेरे छोरे तै भी ज्यादा पढ़ी लिखी सै। उसे न पढ़ पाने का अर न ही नौकरी करने का मौका दिया तने।"
"अरे, बड़ी बहू ने तो कदे डक्का नी तोड़या। या बहू कमेरी है। इसके आए पाछै मने सुख हो गया। नौकरी करती तो के पता या कुछ काम भी न करे घर में, मने तो यू ही डर था।"

"हाहा, माँ तने तो अनपढ़ अर पढ़ी लिखी दोनों एक कर दी। सात साल हो लिए, अपने मन में घुटती होई वह तो घर के काम मैं ही रम गयी अब। अब किसी नौकरी माँ?"

"अरे, एकली कमाई मैं घर नहीं चालते अब। किसी ठीक-से स्कूल में बात कर ले। वह भी मास्टरनी लाग जावेगी।"

"अर लोकलाज का के?" , उसने तंजदार सवाल दागा।

माँ बिगड़ते हुए बोली, "भाड़ में गयी लोकलाज़।"

तभी उसकी नज़र कमरे से बाहर आती पत्नी से जा टकराई, जो मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।

©सतविन्द्र कुमार राणा
करनाल

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

साची

माथे की रोली दिखती