भूख, रोटियाँ और सीख- संस्मरण





परिस्थितियाँ समयानुसार बदल जाया करती हैं। यह उक्ति प्रत्येक के व्यक्तिगत जीवन के संदर्भ में फिट बैठती है। अन्यथा सामुदायिक या सामाजिक परिदृश्य में तो कुछ परिस्थितियाँ ज्यों कि त्यों बनीं रहती हैं। यदि बचपन की बात की जाए तो यह कई रूपों में नज़र आ जाता है। ऐसा लम्बे समय से हम देखते आए हैं। ढाबों पर, दुकानों पर,  सड़कों पर काम करता बचपन; पेन, गुब्बारे, खिलौने बेचता बचपन; रेल गाड़ियों में, बसों में, धर्मस्थलों पर भीख माँगता बचपन;  अभिभावकों की महत्वकांक्षाओं के लिए भारी भरकम बस्तों से लदा बचपन। 
इनमें से कुछ हालात ज़रूरी हैं, कुछ मजबूरी और कुछ दोनों।

ख़ैर, आजकल अधिकतर जागरुक अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा पर ज़ोर रखते हैं।  कुछ अधिक जागरुक उन्हें खेल या अन्य अकादमियों में भी भर्ती करवा देते हैं। लेकिन सामान्यतः निम्न मध्यमवर्गीय या मध्यमवर्गीय परिवारों में बच्चे अपने पुश्तैनी धन्धें की भी सीख लेते ही चलते हैं। यही हमारे मामले में रहा। किसानपुत्र होने के नाते हमारा बचपन भी किसानी और पशुपालन कार्यों से अछूता नहीं रहा। होश संभालने पर  विद्यालय से आने के बाद और छुट्टी के दिनों में ये कार्य प्राथमिक हो जाया करते थे। 
आठवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षाएं  होतीं थी। जिनका परिणाम जून माह में आता था। कभी-कभी फरवरी और कभी मार्च के बाद ऐसे में  दो या तीन महीनों के समय का सदुपयोग खेती के कार्य में ही होता था।

जून माह की बात है। मुझे सुबह जल्दी खेत में जाना होता था। धान के लिए पौध को पानी देना और खेत की तैयारी के लिए मेढ़ आदि से कस्सी द्वारा घास छीलने का काम मैं करता। मैं नाश्ता भी नहीं करके जाता था। बाद में मेरे भाइयों में से कोई नाश्ता और दोपहर का भोजन इकट्ठा ही ले आया करता। एक दिन काम करते हुए मुझे भयंकर भूख लगी हुई थी। कस्सी चलाने का काम भारी काम तो होता ही है, भूख लगने पर तो वह सीधी खड़ी पहाड़ी चढ़ने जैसा लग रहा था। मैं भोजन की राह में बार-बार गाँव की तरफ नज़र दौड़ा रहा था। जब गाँव की तरफ से छोटा भाई आता दिखाई दिया तो हौसला मिला। मैं उसे देख कर काम में लगा रहा। जब वह ट्यूबवेल के नजदीक आया तो मैं भी काम छोड़कर ट्यूबवेल के कोठे की ओर चल दिया।  
हाथ-मुँह धोकर मैं बैठा और उसने रोटियों का एक बॉक्स वाला टिफिन मेरी और बढ़ा दिया। गाँव में किसानों के बारे में एक कहावत अक्सर सुना करता था:  'जमींदार अपने घर मैं खोर पे चार डंगर बांध कै दूध होने की आस में टेम काट सके है, पर दूध मोल का नी पी सकता।'
दूध नहीं तो लस्सी भी नहीं। आषाढ़ का महीना वैसे भी दूध के मामले में लगभग ख़ुश्क ही जाता है। मैनें उसके हाथ से टिफिन लिया और उसे खोला। खोलते ही देखा कि उसमें चंद बिना घी लगी रोटियाँ और पिसा हुआ साधारण नमक था। न जाने मुझे क्या हुआ मैनें उसे जैसे खोला था, वैसे ही बंद कर दिया और गुस्से में एक तरफ फेंक दिया। छोटा भाई निर्विकार मुद्रा में मुझे देखता रहा। मैनें कहा, "बिल्कुल सूखी रोटी! मैं नी खाऊँगा।"
मैनें कह तो दिया और कहे को निभाने के लिए कुछ देर भोजन न करने का अभिनय भी किया, लेकिन भूख के आगे मैंने जल्दी ही हथियार डाल दिये।

थोड़ी देर बाद मैंने टिफिन को खुद ही उठा लिया। इससे पहले कि मैं रोटियाँ खाना शुरू करता, कहीं से एक व्यक्ति प्रकट हुआ। उसकी वेशभूषा भी उस समय हमें विचित्र लगी। उसने हॉफ पेंट पहनी हुई थी। उस पर एक संतरी रंग की टी-शर्ट, सिर पर भी एक साफ़ा-सा लपेट रखा था। कमर के चारों तरफ एक रस्सी लपेट रखी थी, जिसमें एक पतली-सी ढाई फुट की सूखी  लकड़ी, इस तरह उलझा रखी थी, जैसे पुराने लोग कमरबंध लगा कर म्यान सहित तलवार लटका लेते थे। वह नङ्गे पाँव ही था।  हम दोनों भाई उसे एकटक देखने लगे। हम दोनों को ही उसका व्यक्तित्व समझ न आया। मैनें उसे राम-राम कहा, जैसा कि गाँव में अभिवादन करने के लिए कहा जाता है। उसकी तरफ से कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया न आयी। टिफिन का ढक्कन खोलने से पहले मैनें उससे पूछा,"रोटी खावोगे?"
उसका बाबाओं की तरह उंगली के इशारे के साथ सधा हुआ उत्तर था, "एक्क रोटी खावांगा।"
मैनें सूखे नमक के साथ दो रोटियाँ दे दी। वह आराम से खाने लगा। बीच में ही मेरे मन में उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हुई और मैं पूछ बैठा, "आपके बच्चे भी हैं?"
उसने उंगली का इशारा करते हुए कहा,   " दो बच्चे हैं।"
मैनें पूछा, " कहाँ?"
उसकी उंगली कोठे से बाहर की ओर घूम गयी। बोला, "ओं रहे।"
मैं और मेरा भाई दोनों डर गए। क्योंकि बाहर तो कोई नहीं था।
मैनें हिम्मत करके दोबारा पूछा, "कहाँ, वहाँ तो कोई  नी दिख रा?"
उसने रोटी खाना छोड़ा और उठकर बाहर की ओर भागा और वहाँ बैठे कबूतरों की ओर अपनी उस लकड़ी को बंदूक की तरह तानते हुए बोला, "ठां, ये हैं तो।"

हम दोनों उसकी हरकत से हक्के-बक्के रह गए।
मैनें कहा, "ये कबूतर?" जो कि उसकी हरकत से डर कर उड़ चुके थे। 
वो बोला, "आहो।" 
और बैठकर फिर रोटी खाने लगा। वह दोनों रोटियाँ खा चुका था, मैनें उससे पूछा, "और रोटी खाओगे?" 
उसने फिर इशारा करते हुए एक रोटी की मांग की। मैनें उसे फिर दो रोटियाँ दे दी। वह रोटी खाता, मैं और के लिए पूछता, वह वही एक रोटी का इशारा करता और मैं उसे रोटियाँ थमा देता। धीरे-धीरे वह टिफिन की सारी रोटियाँ निपटा गया। जो मेरी सुबह और दोपहर की खुराक थी, वह एक ही बार में चट कर गया। उसने लम्बी डकार ली और ट्यूबवेल से पानी पीकर चलता बना।
खाली टिफिन को देखते हुए मैंने अपने भाई को कहा, "जब मैंने टिफिन फेंका था, तभी मेरे मन में यह बात आ गयी थी कि आज मैंने अन्न का अपमान किया है। ऐसा करने पर मुझे किसी दिन भूखा ही रहना पड़ेगा। इसीलिए मैंने टिफिन को दोबारा उठा लिया था। पर, ये नहीं पता था कि यह आज और अभी होगा।"

बाद में किसी से पता चला कि वह व्यक्ति पड़ोसी गाँव के किसी किसान का नौकर था। जो कई बार उसके खेत से भाग जाया करता था। उस दिन भाग कर हमारे पास आ धमका था और मेरे हिस्से के भोजन का अधिकारी बना।
मुझे प्रायश्चित के तौर पर शाम तक बिना भोजन किए काम करना पड़ा। मैनें उस दिन के बाद भोजन को लेकर कभी नाक-भौं नहीं चढ़ाई और न ही कभी जूठन छोड़ी।

©सतविन्द्र कुमार राणा

Comments

  1. बहुत बढ़िया सीख देने वाला संस्मरण

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