जिंदगी के टुकड़े मिलते रास्तों पर- ग़ज़ल
यह मुसीबत जो उठाए चल रहा है
क्या सहज है, या किसी की योजना है?
आसमानी कुछ नहीं आदम जनित यह
फैलती ही जा रही ऐसी बला है।
जिंदगी के टुकड़े मिलते रास्तों पर
कह रही मुझ से खरी देखो कज़ा है।
हाल कोई हो समय कैसा रहा हो
सेंकने वाला तो रोटी सेंकता है।
जान पर इंसानियत की बन पड़ी जब
हल कोई मिल के सभी को खोजना है।
©सतविन्द्र कुमार राणा
Achchi hai
ReplyDeleteTahnks
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