फैसला (लघुकथा)
"भाइयो! गलती दोनों ने करी थी!बहिष्कार भी दोनों का ही हुआ था।छोरा जब गाँव में आया था, तो उसके परिवार वालों ने ही उसको धमका कर खदेड़ दिया था और अपने किये के पछतावे में उसने जहर निगल लिया था। उसको बचाया किसी ने नहीं, पर उसकी मौत का तमाशा हम सबने देखा,क्यूकर तड़फ कर मरा था वो? सब जानते हैं।"
पंचायत में एक मौजिज व्यक्ति ने बात कहनी शुरु की। सब ध्यान से सुन रहे थे। उसने आगे कहा, "भाइयो! लड़की की शादी उसके घर वालों ने बाहर ही करदी, गाँव को कुछ पता नहीं। गाँव वालों को इससे कोई मतलब भी नहीं। पर अब सुनने में आया है कि वो अपने घर आने-जाने लगी है।"
"हाँ..हाँ उसको देखा है, रात में ही आती है, कभी घर से निकलती नहीं और फिर किसी रात में ही चली जाती है।कर्मसिंह की घरवाली उनके घर ही थी उस शाम मुँह अँधेरे, जब वो घर आई थी।"
एक आदमी ने तुरंत जोड़ा।
सब पंचायती लड़की के पिता की ओर देखने लगे।
जो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और नज़र झुकाकर बोला, "जी,यह बात सच है, कभी-कभी आ जाती है हमारी बेटी।"
"अरे!उस टैम तू भी था न फैसले के पक्ष में?  इनका छोरा तो जहान ते गया और तू बाप-बेटी का रिश्ता निभा रहा है।"
एक व्यक्ति बीच में से उठकर चिल्लाया।
दूसरे व्यक्ति ने और समझदारी दिखाई, "भाइयो, जिसकी जान गई वो गोपाल का छोरा था। अर सब गुनहगार भी अब गोपाल के ही हैं।"
सब ने उसकी बात को जायज ठहराया।
उसने हाथ जोड़कर निवेदन किया, "भाइयो! फेर फैसला लेने का हक भी उसे ही दे देना चाहिए।"
सब एक स्वर में चिल्लाए,"हाँ, यही सही है।"
ऐसा कहते ही सबकी नजर गोपाल की तरफ मुड़ गई।
गोपाल मायूस-सा बैठा था।यह बात सुनकर सकपका गया।फिर कुछ सोचता हुआ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोलना शुरु किया,"गाँव के मौजिज लोगों,मान सम्मान के योग्य सभी मौजूद गाँव वासियो! अगर मेरी ही बिनती को फैसला मान रहे हो, तो किरपा करके उस लड़की को अपने मायके आने-जाने दिया जाए।वह गाँव की बेटी है, उसे छुप-छुप कर घर आने की जरूरत नहीं है। कईं साल की सजा काट ली उसने अपनी गलती की। अब भी शर्म के कारण किसी को मुँह नहीं दिखाती।"
कईं पंचायतियों आँखें फ़टी रह गयी।

©सतविन्द्र कुमार राणा

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