चलती जीवन गाड़ी



एक समझ को रखे सँजोए,
दूजा रहे अनाड़ी।
दो पहिये हम, प्रेम धुरी है, 
चलती जीवन गाड़ी।

ठंड घेरती जाती इसको,
सूनी-सूनी अमराई।
आस मिलन की ऐसे लगती,
जैसे धूप छिटक आई।

पाकर प्रेम तपिश थोड़ी भी,
चले जमी हर नाड़ी।

पत्थर के रस्ते से बोलो,
अब क्या मतलब अपना है।
पगडन्डी काच्ची काफ़ी है,
आगे जिस पर बढ़ना है।

गाँव हमारा रहा ठिकाना,
धंधा खेती-बाड़ी।

जब दिल में आए हम दोनों,
साथ घूमने जाएंगे।
दो पहियों की सही सवारी,
इसको  हम अपनाएंगे।

मैं पहनूँ जैकट सर्दी में,
तुम  जर्सी औ साड़ी।


©सतविन्द्र कुमार राणा

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