जीवन के रंग- नवगीत
इंद्रधनुष को दिखे चिढ़ाते,
जीवन के सब रंग
नींव मिली है अच्छी जिसको
उस पर खड़ी अटारी
कच्ची-सी मिट्टी पर लेकिन
लगे झोपड़ी भारी
महलों की आहट से ढहती
हर कुटिया बेरंग।
दाने-दाने पर कर कब्जा
गोश्त नोच कर खाए
इसकी भूख बड़ी है इतनी
भूखे को निपटाए
पचे हाजमे की गोली से
दूजा भूखा अंग
जर्जर है काया लेकिन यह
बालक-सा मन रखती
नरम हाड़ होता जब साथी
नहीं खेलती थकती
बालपन हो, या हो बुढ़ापा
दोनों चाहें संग।
©सतविन्द्र कुमार राणा
अति सुंदर
ReplyDeleteआभारं
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