राजनीति का भूत-संस्मरण



बात उस समय की है जब पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे। कक्षा में पढ़ने में सबसे होशियार हम दो लड़के थे। दोनों  ही लगभग एक समान ही अंक प्राप्त करते थे, हर टेस्ट में। उस समय विद्यालय में महिला अध्यापक को बहनजी कहते थे। हमारी बहनजी थी रौशनी बहनजी। उन्होंने मुझे कक्षा का मॉनिटर नियुक्त किया हुआ था।
दूसरा जो लड़का था उसके साथ एक अन्य लड़के की जरा ज्यादा नजदीकियाँ बन गई थी। उसका और इसका क्रमांक साथ-साथ थे और वह पढ़ने में थोड़ा कमजोर था, शायद इस लिए। होशियार विद्यार्थियों के फैन जरा ज्यादा ही होते हैं।
एक दिन हमारी बहनजी नहीं आई तो मैंने अगली गणित प्रश्नावली के सूत्र और सवाल कक्षा को बोर्ड पर समझा दिए। उसके बाद बहनजी भी मुझे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करने लगी। पहले तो मॉनिटर का पद और फिर ये सम्मान मिलने पर मेरी और उन दोनों के बीच बिना दिखने वाली दूरी-सी बन गई। मुझे लगने लगा कि वो मुझसे जलते हैं। मैंने इस बात की घोषणा भी कक्षा में ही कर दी। मुझे कहीं से पता चला की कहीं विद्यार्थियों में वोट पड़े और उनमें से दो विद्यार्थियों में एक को बहुत सारे वोट मिले और वह जीत गया। शायद किसी कॉलेज के इलेक्शन का जिक्र था। पर , उस समय हम तो स्कूल ही समझते थे। मुझे लगा वे दो ही हैं और बाकी सब सहपाठी मेरे साथ हैं। दिमाग पर राजनीति का भूत सवार हुआ और कक्षा में चुनाव का जिक्र कर दिया। अपनी तरफ से ही घोषणा भी कर दी। अब दूसरा तो कोई उम्मीदवार था ही नहीं। ऐसे ही एक सहपाठी ने दूसरी पार्टी को भी इलेक्शन का प्रस्ताव भेजा। उन्होंने बड़े ध्यान से सुना। उस समय बहनजी कक्षा में नहीं थी। जिसे मैं अपनी टक्कर का उम्मीदवार समझ रहा था, वह थोड़ी देर बाद कक्षा-कक्ष से बाहर गया और कुछ देर बाद वापिस आया और मेरी तरफ मुस्कुराते हुए बैठ गया। उसके पीछे ही बहनजी भी आ गई।
बहनजी ने मुझसे पूछा,"आँ रे सतविंदर! के इलेक्शन-से की बात हो रही थी?"
उनका मुझसे विशेष स्नेह था सो बिना डरे पूरी बात सच-सच बता दी। फिर मेरी ऐसी धुनाई हुई कि राजनीति का भूत फुर्र हो गया। उनसे पहली और अंतिम बार हुई यह धुनाई एक भयानक भूत से पीछा छुड़ा गई।

©सतविन्द्र कुमार राणा

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