शब्द बाण३

1

शिक्षा का अब हो रहा, देखो भई प्रसार
संस्थाओं की वृद्धि कर, यह कहती सरकार
यह कहती सरकार, फीस जो  भारी देगा
उसका बालक ज्ञान, कमाई कर पाएगा
तकनीकी का कोर्स, डॉक्टरी भी कब भिक्षा
जिसके धन है पास, मिलेगी उसको शिक्षा।

2

हरियाणवी तीर

पीसे कट्ठे करण का, यू सै कोरा ढंग
ना धुम्मा ये देखते, ना ही उसका रंग
ना ही उसका रंग, चुभै आँख्या मैं जन की
न प्रदूषण जाँच, करैं बस अपणे मन की
सतविंदर सरकार, जाणती यैं लें जी से
पड़ी हवा जा भाड़, चाहिए इन नै पीसे।


सै: है
जी से: आनन्द
कट्ठे: इकट्ठे
पीसे: पैसे
धुम्मा: धुआँ
©सतविन्द्र कुमार राणा
3

पावन गंगा से बड़ा, है किनका परिवेश
हरता सारे पाप जो, मिटा हृदय का क्लेश
मिटा हृदय का क्लेश, बड़े पद पर बैठाता
करता भय से मुक्त, दंड का दम्भ मिटाता
सतविंदर हर दाग, मिटे पा इससे धावन
मिले जिसे सानिध्य, पतित वह होता पावन।

4

भटका भाई दर बदर, भरने मटका पूर्ण
मटके में अटका रहा, उड़ने वाला चूर्ण
उड़ने वाला चूर्ण, कहाँ पर टिक पाता है
मिले पवन का वेग, फुर्र वह हो जाता है
सतविंदर फिर खेल, खिलाड़ी देता झटका
भौचक होकर शांत, रहे जो दर-दर भटका।

5

पैसा पत्थर मारता, पैसा लाए जाम
पैसे से विध्वंस सब, पैसे से आराम
पैसे से आराम, पहुँच इसकी कब कम है
बदले पवन प्रवाह, कहें इसमें वह दम है
सतविंदर लो जान, सत्य का बल है ऐसा
जो लगता पुरज़ोर, धरा रह जाता पैसा।

6

बीमारी तो कह रही, डटो घरों में यार
घर बैठे भूकम्प की,पड़ने लगती मार
पड़ने लगती मार, खेल यह क्या कुदरत का
दिखता हमको आज, हुआ कचरा सद्मत का
सतविंदर अब राम, एक हैं खेवनहारी
जीवन पर है भार,  देख लो रे बीमारी।।

7

अपने हाथों ढाल ले, और उठा हथियार
लड़ने के खातिर सभी, हो जाएँ तैयार
हो जाएँ तैयार, बने खुद के रखवाले
साहब कहते आज,आपके वतन हवाले
सतविंदर कह खोल, नयन को देखें सपने
बाहर या घर-बंद, रहें साहस पर अपने।

8

अपनी खाली कोठड़ी, खोल रहे भंडार
मुक्त सभी को बाँट दें, खुद दाता के द्वार
खुद दाता के द्वार, करें विनती पोषण की
कर दो कुछ तो दान, दबें बातें शोषण की
सतविंदर जब चाल, चलें मिलती तब ताली
जिससे ताला खोल, धरें हम कुर्सी खाली।

9
जाना प्राणी खेल बस, तभी भए इंसान
समझा उसको खाद्य जब, पाया खुद सम्मान
पाया खुद सम्मान, नजर में खुद की केवल
हर दूजे पर वार, चले निरीह पर ही बल
सतविंदर भगवान, जहाँ जीवन को माना
उसी भूमि पर आज, ठीक वह मारा जाना।

10
सार्थक अगर परोसिये, समझो लगते दस्त
विष भर दें यह थाल को, करें जगत को मस्त
करें जगत को मस्त, समझ इनकी है छोटी
गढ़ें कहानी झूठ, कमाएँ उससे रोटी,
हो सदा बहिष्कार, बंद हो जाए बकबक
सच को लेकर साथ, रचें ये सब कुछ सार्थक।

©सतविन्द्र कुमार राणा

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