थर-थर थर-थर दुश्मन काँपे
भारत भू की रक्षा खातिर, सदा रहें मन से तैयार
दुश्मन की छाती पर कर दें, पड़े न खाली इनका वार
हाथों में बंदूकें हों या, साथ न चाहे हो हथियार
थर-थर थर-थर दुश्मन काँपे, भरते हैं ये जब हुंकार।
बार-बार दुश्मन ने घेरा, लेकिन चला न उसका जोर
सिंह हमारे टूट पड़े जब , गया भागता वह उस ओर
मुँह की खानी पड़ी उसे तब, शांत हुआ सब उसका शोर
आँख उठाकर फिर यदि देखा, उसे बनादेंगे हम मोर।
केवल सीमा की ही चिंता, नहीं रहा है अपना काम
घर के अंदर यदि घाती हो, उसको भी देते अंजाम
विपदा यदि जनमानस को हो, सेवा करते सुबहो शाम
बाढ़ घिरे या धरती काँपे, सैनिक ही देता आराम।
हर आफत में आगे बढ़कर, सेवा करती दिल में ठान
सेना पर विश्वास करें हम, तभी बढ़ेगा उसका मान
सैनिक रक्षक हैं सेवक हैं, उनसे रहे देश की शान
उनका आदर सभी करें बस, करें नहीं चाहे गुणगान।
सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'
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